आर्य , आर्य समाज और उनके धर्म और संस्कृति । arya samaj

आर्य
आर्य , आर्य समाज और उनके धर्म और संस्कृति


आर्य समस्त हिन्दुओं तथा उनके मनुकुलीय पूर्वजों का वैदिक सम्बोधन है। इसका सरलार्थ है श्रेष्ठ अथवा कुलीन। 

आर्य धर्म और संस्कृति

आर्य शब्द का अर्थ है प्रगतिशील। आर्य धर्म प्राचीन आर्यों का धर्म और श्रेष्ठ धर्म दोनों समझे जाते हैं। प्राचीन आर्यों के धर्म में प्रथमत: प्राकृतिक देवमण्डल की कल्पना है जो भारत, में पाई जाती रही है। इसमें द्यौस् (आकाश) और पृथ्वी के बीच में अनेक देवताओं की सृष्टि हुई है। भारतीय आर्यों का मूल धर्म ऋग्वेद में अभिव्यक्त है, देवमंडल के साथ आर्य कर्मकांड का विकास हुआ जिसमें मंत्र, यज्ञ, श्राद्ध (पितरों की पूजा), अतिथि सत्कार आदि मुख्यत: सम्मिलित थे। आर्य आध्यात्मिक दर्शन (ब्राहृ, आत्मा, विश्व, मोक्ष आदि) और आर्य नीति (सामान्य, विशेष आदि) का विकास भी समानांतर हुआ। शुद्ध नैतिक आधार पर अवलंबित परंपरा विरोधी अवैदिक संप्रदायों-बौद्ध, जैन आदि-ने भी अपने धर्म को आर्य धर्म अथवा सद्धर्म कहा।
सामाजिक अर्थ में "आर्य' का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था। फिर अभिजात और श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। फिर आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है:-
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत॥10॥ 90। 22॥

(इस विराट् पुरुष के मुंह से ब्राह्मण, बाहु से राजस्व (क्षत्रिय), ऊरु (जंघा) से वैश्य और पद (चरण) से शूद्र उत्पन्न हुआ।)
यह एक अलंकारिक वाक्य हे | ब्रह्म तो अनंत हे | उस ब्रह्म के सद विचार, सद प्रवृत्तियां आस्तिकता जिस जनसमुदाय से अभिव्यक्त होती हे उसे ब्राहमण कहा गया हे | शोर्य और तेज जिस जन समुदाय से अभिव्यक्त होता हे वह क्षत्रिय वर्ग और इनके अतिरिक्त संसार को चलने के लिए आवश्यक क्रियाए जेसे कृषि वाणिज्य ब्रह्म वैश्य भाग से अभिव्यक्त होती है। इसके अतिरिक्त भी अनेक इसे कार्य बच जाते हे जिनकी मानव जीवन में महत्ता बहुत अधिक होती हे जेसे दस्तकारी, शिल्प, वस्त्र निर्माण, सेवा क्षेत्र ब्रह्म अपने शुद्र वर्ग द्वारा अभिव्यक्त करता हे |

आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबंध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्यपरिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं।

प्रारंभिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य (अदिति से उत्पन्न), दैत्य (दिति से उत्पन्न) आदि शब्दों में मातृसत्ता की ध्वनि वर्तमान है। दंपती की कल्पना में पति पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार पाया जाता है। परिवार में पुत्रजन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गंभीर बना देता था, किंतु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा आदि स्त्रियां मंत्रद्रष्टा ऋषिपद को प्राप्त हुई थीं। विवाह प्राय: युवावस्था में होता था। पति पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ संपन्न होता था, जो परवर्ती ब्राहृ विवाह से मिलता जुलता था।
प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। संस्कृत भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। ऋग्वेद में ब्राहृचर्य और शिक्षणपद्धति के उल्लेख पाए जाते हैं, जिनसे पता लगता है कि शिक्षणव्यवस्था का संगठन आरंभ हो गया था और मानव अभिव्यक्तियों ने शास्त्रीय रूप धारण करना शुरू कर दिया था। ऋग्वेद में कवि को ऋषि (मंत्रद्रष्टा) माना गया है। वह अपनी अंतदृष्टि से संपूर्ण विश्व का दर्शन करता था। उषा, सवितृ, अरण्यानी आदि के सूक्तों में प्रकृतिनिरीक्षण और मानव की सौंदर्यप्रियता तथा रसानुभूति का सुंदर चित्रण है। ऋग्वेदसंहिता में पुर और ग्राम आदि के उल्लेख भी पाए जाते हैं। लोहे के नगर, पत्थर की सैकड़ों पुरियां, सहरुद्वार तथा सहरुस्तंभ अट्टालिकाएं निर्मित होती थीं। साथ ही सामान्य गृह और कुटीर भी बनते थे। भवननिर्माण में इष्टका (ईंट) का उपयोग होता था। यातायात के लिए पथों का निर्माण और यान के रूप में कई प्रकार के रथों का उपयोग किया जाता था। गीत, नृत्य और वादित्र का संगीत के रूप में प्रयोग होता था। वाण, क्षोणी, कर्करि प्रभृति वाद्यों के नाम पाए जाते हैं। पुत्रिका (पुत्तलिका, पुतली) के नृत्य का भी उल्लेख मिलता है। अलंकरण की प्रथा विकसित थी। स्त्रियां निष्क, अज्जि, बासी, वक्, रुक्म आदि गहने पहनती थीं। विविध प्रकार के मनोविनोद में काव्य, संगीत, द्यूत, घुड़दौड़, रथदौड़ आदि सम्मिलित थे।

आर्य और आर्य समाज

आज के युग में आर्यों से भिन्न एक गुट की स्थापना दयानन्द सरस्वती जी के द्वारा हुई है। उनका कार्य है भारत को वेदों की ओर लौटाना। वे ईश्वर के अद्वैत तथा अजन्मा सत्ता को स्वीकारकर कृष्णादि के ईश्वरत्व को न मानते हुए उन्हें महापुरुष की संज्ञा देते हैं तथा पौराणिक तथ्यों को पूर्णतया नकारते हैं। हालांकि महर्षि दयानन्द जी के युग में ही उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत यथा पुराण कल्पना तथा अवैदिक हैं, का खण्डन हो चुका है। अतः यहाँ से आर्यों के मत का दो भाग हो गया। एक जो पुराण तथा वेद और ईश्वर के साकार निराकार दोनो सत्ताओं को मानने वाले तथा दूसरे केवल वेद और निराकार सत्ता को मानने वाले।
श्रेष्ठ, शिष्ट अथवा संज्जन

नैतिक अर्थ में "आर्य" का प्रयोग महाकुल, कुलीन, सभ्य, सज्जन, साधु आदि के लिए पाया जाता है। (महाकुलकुलीनार्यसभ्यसज्जनसाधव:। -अमरकोष 7। 3)। सायणाचार्य ने अपने ऋग्भाष्य में "आर्य' का अर्थ विज्ञ, यज्ञ का अनुष्ठाता, विज्ञ स्तोता, विद्वान् आदरणीय अथवा सर्वत्र गंतव्य, उत्तमवर्ण, मनु, कर्मयुक्त और कर्मानुष्ठान से श्रेष्ठ आदि किया है। आदरणीय के अर्थ में तो संस्कृत साहित्य में आर्य का बहुत प्रयोग हुआ है। पत्नी पति को आर्यपुत्र कहती थी। पितामह को आर्य (हिन्दी - आजा) और पितामही को आर्या (हिंदी - आजी, ऐया, अइया) कहने की प्रथा रही है। नैतिक रूप से प्रकृत आचरण करनेवाले को आर्य कहा गया है :
कर्तव्यमाचनरन् कार्यमकर्तव्यमनाचरन्।
तिष्ठति प्रकृताचारे स आर्य इति उच्यते॥
किसी भी वर्ण अथवा जाति का व्यक्ति अपनी श्रेष्ठता अथवा सज्जनता के कारण आर्य कहा जाने लगा।

आर्यों की आदिभूमि

आर्य प्रजाति की आदिभूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। भाषावैज्ञानिक अध्ययन के प्रारंभ में प्राय: भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मोनोजेनिक) सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ और माना गया कि भारोपीय भाषाओं के बोलनेवाले के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गए। भाषावैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदिभूमि कभी मध्य एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, रही है। जबकि भारत से बाहर गए आर्यन के निशान कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नहीं। आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहूद्भव (पॉलिजेनिक) होने का सिद्धांत भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानववंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो संपर्क और प्रभाव से भी होता आया है, कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपना लिया है। जहां तक भारतीय आर्यों के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के संबंध में एक भी उल्लेख नहीं है। कुछ लोगों ने परंपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और हिमालय तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदिभूमि माना है। पौराणिक परंपरा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत, उत्तर भारत एवं पंजाब) को आर्यों की आदिभूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यों की मूलभूमि को ध्रुवप्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान् और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् अब भी भारतीय आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते हैं।
अब आर्यों के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त (AIT) गलत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज़ और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से ही गुलाम हैं। इसके अतिरिक्त अंग्रेज इसके द्वारा उत्तर भारतीयों (आर्यों) तथा दक्षिण भारतीयों (द्रविड़ों) में फूट डालना चाहते थे। इसी श्रंखला में अंग्रेजों ने शूद्रों को दक्षिण अफ्रीका से अपनी निजी सेवा व् चाटुकारिता के लिए एवं भारत में आर्यों से युद्ध करने के लिए अपनी सैनिक टुकडियां बनाने हेतु लाया गया बताया है ! जबकि वास्तव में शुद्र वो लोग थे जो अर्धनग्न अवस्था में जंगलों में अशिक्षित व् पशुओं जैसा जीवन व्यतीत करते थे !
अरविन्द जी के विचार
आर्य लोग जगत की सनातन स्थापना के जानकर थे। उनके अनुसार प्रेम शक्ति (सत्) के विकास के लिए सर्व्यापी नारायण या ईश्वर स्थावर-जंगम मनुष्य-पशु कीट-पतंग साधू-पापी शत्रु-मित्र तथा देवता और असुर के रूप में प्रकट होकर लीला कर रहे हैं। अरविन्द घोष के अनुसार अार्य लोग मित्र कि रक्षा करते और शत्रु का नाश करते किन्तु इसमें उनको आसक्ति नहीं थी। वे सर्वत्र, सब प्राणियों में, सब वस्तुओं में, कर्मों में और फल में ईश्वर को देख कर इष्ट-अनिष्ट शत्रु-मित्र सुख-दुःख तथा सिद्धि-असिद्धि में समभाव रखते थे। इस समभाव का परिणाम यह नहीं था कि सब कुछ उनके लिए सुखदायी और सब कर्म उनके करने योग्य थे।
बिना सम्पूर्ण योग के द्वंद्व नहीं मिटता है, और यह अवस्था बहुत कम लोगों को प्राप्त होती है, किन्तु आर्य शिक्षा साधारण आर्यों कि सम्पत्ति है| आर्य इष्ट साधन और अनिष्ट को हटाने में सचेत रहते थे, किन्तु इष्ट साधन से विजय के मद में चूर नहीं होते थे और अनिष्ट समपादन में डरते भी न थे। मित्र कि सहायता और शत्रु कि पराजय उनकी चेष्टा होती थी लेकिन वे शत्रु से द्वेष नहीं करते थे और मित्र का अन्याय भी सहन नहीं करते थे। आर्य लोग तो कर्तव्य के अनुरोध से स्वजनों का संहार भी करते थे और विपक्षियों कि प्राण रक्षा के लिए युद्ध भी करते थे। वे पाप को हटाने वाले और पुण्य का संचय करने वाले थे लेकिन पुण्य कर्म में गर्वित नहीं होते थे और पाप में पतित होने पर रोते नहीं थे वरन् शरीर की शुद्धि करके आत्मोन्नति में सचेष्ट हो जाते थे। आर्य लोग कर्म कि सिद्धि के लिए विपुल प्रयास करते थे और हजारों बार विफल होने पर भी वीरत नहीं होते थे एवं असिद्धि में दुखी होना उनके लिए अधर्म था। 

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