जरूरी कानूनी सलाह , न्यायालय, फौजदारी, दीवानी, मुफ्त कानूनी सेवायें । Normal Law Rules

सलाह

गैरकानूनी काम करने पर कानून की जानकारी नहीं होने का बहाना नहीं बनाएं।
अगर आपकी गलती से किसी को नुकसान होता है तो आप ये नहीं कह सकते हैं कि गैरइरादतन ऐसा हो गया।जैसे लापरवाही से गाड़ी चलाना ।
अगर आपको कोई काम गैरकानूनी लगता है तो कानून अपने हाथ में लेने की कोशिश ना करें । केवल आत्मरक्षा में आवश्यक बचाव करें।
किसी सरकारी कर्मचारी या अदालत के कानूनी आदेश/निर्देश/बुलावे(समन) को नहीं मानना या गलत जानकारी देना अपराध है।
किसी अधिकारी या कर्मचारी से काम करवाने के लिए उसे उपहार या पैसा देना अपराध है।
किसी दस्तावेज में कोई बदलाव ना करें या गलती ठीक करने की कोशिश नहीं करें । ऐसा करना अपराध माना जायेगा।

इन कामों में सावधानी बरतें

सिविलियन थल सेना , नौसेना और वायुसेना की ड्रेन ना पहनें और तमगे ना लगाएं।
राष्ट्रीय ध्वज को सही तरीके से फहराएं औऱ रखें। ध्वज का अपमान ना करें।
सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान या नशा ना करें ।
महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार ना करें ।
झूठी धारणाएं और अफवाहें ना फैलाएं।
सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान ना पहुंचाएं।

जरुरी बातों का ध्यान रखें

देश के कानूनों , राष्ट्रीय प्रतीकों, सार्वजनिक संस्थानों , संविधान और दूसरों की गरिमा का ध्यान रखें
किसी भी अधिकारी या कर्मचारी से गैरकानूनी सुविधाओं की मांग ना करें ।
किसी भी मामले में अदालत जाने से पहले सुलह-सफाई से सुलझाने की कोशिश करें।
कानून और व्यवस्था बनाए रखने में अधिकारियों की मदद करें। जैसे-किसी अपराध के बारे में पुलिस को बताएं,कर्फ्यू का उल्लंघन ना करें।

सामान्य कानूनी प्रावधान

संविधान और कानून की नजर में सभी बराबर हैं और सभी को कानूनी संरक्षण पाने का अधिकार है ।
मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर आप सीधे उच्चन्यायालय या उच्चतम न्यायालय में जा सकते हैं ।
अपने जानमाल की रक्षा के लिए काम कर सकते हैं । ये अपराध नहीं माने जायेंगे । जैसे बाढ़ आने पर बस्ती को बचाने के लिए नहर को तोड़ देना, मरीज की जान बचाने के लिए उसका पैर काट देना।
आत्मरक्षा के लिए हमलावर पर हमला कर सकते हैं , लेकिन एक सीमा तक ही ऐसा कर सकते हैं ।
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न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय- नई दिल्ली
उच्च न्यायालय-रज्यों में
जिले स्तर पर न्यायालय-
कार्यपालिका के न्यायिक अधिकारी
जिला मजिस्ट्रेट(डीएम)
अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट
सब डिविजनल मजिस्ट्रेट
जिला न्यायालय- सिविल या दीवानी मामलों का न्यायालय।
सत्र न्यायालय-फौजदारी या आपराधिक मामलों का न्यायालय(नॉन-मेट्रोपोलिनटन एरिया)

सत्र न्यायालय के न्यायाधीश-
सत्र न्यायाधीश,
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश,
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट,
अतिरिक्त मुख्य मजिस्ट्रेट,
प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट
सत्र न्यायालय-फौजदारी या आपराधिक मामलों का न्यायालय(मेट्रोपोलिटन एरिया)

सत्र न्यायालय के न्यायाधीश-
सत्र न्यायाधीश,
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश,
मुख्य मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ,
अतिरिक्त मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट,
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट
न्यायाधिकरण(ट्रिब्यूनल)
सरकारी नौकरी तथा कराधान से जुड़े विवादों के लिए न्यायाधिकरण।

लोक अदालत

सुलह औऱ सफाई से विविदों को निपटाने का एक सस्ता माध्यम।
ऐसे फौजदारी मामलों को छोंड़कर जिनमें समझौता गैरकानूनी है , अन्य सभी तरह के मामले लोक अदालतों द्वारा निपटाए जाते हैं ।
लोक अदालतों के फैसले दीवानी अदालतों के फैसलों की तरह सभी पक्षों को मान्य होते हैं ।
लोक अदालतों के फैसलों के खिलाफ किसी भी अदालत में अपील नहीं की जा सकती है ।

फौजदारी या आपराधिक मामले

फौजदारी या आपराधिक मामलों में शिकायतकर्ता का उद्देश्य अपराधी को सजा दिलवाना होता है ।
अपराध का शिकार होने वाला या अपराध जानकारी रखने वाला व्यक्ति शिकायत दर्ज करा सकता है । मजिस्ट्रेट जानकारी या शक के आधार पर खुद भी आपराधिक मामला शुरु कर सकता है ।
मजिस्ट्रेट झूठी शिकायत करने वाले पर जुर्माना कर सकता है ।
किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए दोबारा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है , लेकिन अगर अभियुक्त को आरोप निर्धारित करने से पहले छोड़ दिया गया हो या अभियुक्त के पिछले कार्य से भविष्य में कोई दूसरा अपराध हो गया हो तो उस पर मुकदमा चलाया जा सकता है ।
फौजदारी या आपराधिक मामले में शिकायतकर्ता ना तो मामला वापस ले सकता है और ना ही समझौता कर सकता है।
शिकायत दर्ज होने के बाद अदालत दोनों पक्षों की सुनवाई करता है । अगर अभियुक्त दोषी पाया जाता है तो अदालत उसे सजा सुनाती है ।हालांकि मामूली मामलों में अदालत आरोप नहीं निर्धारित करती है, लेकिन पक्षों औऱ गवाहों की बात सुनने के बाद फैसला सुना देती है ।
सजा पाया हुआ व्यक्ति ऊंची अदालत में अपील कर सकता है ,लेकिन उन्हीं मामलों में जिनमें संबद्ध कानून या प्रक्रिया में अपील का प्रावधान हो।
मुकदमे को दौरान गवाह के झूठ बोलने पर अदालत गवाह को सजा भी दे सकती है ।

सिविल या दीवानी मामले

सिविल या दीवानी मामलों में शिकायतकर्ता का उद्देश्य दूसरे व्यक्ति से अपना दावा हासिल करना होता है ।
सिविल अदालत की सबसे छोटी इकाई ग्राम पंचायतें होती हैं । इनमें रुपए पैसे के छोट-छोटे मामले निपटाए जाते हैं ।
किसी वादी या आवेदनकर्ता के अर्जीदावा या वाद दायर करने के साथ ही सिविल मुकदमा शुरु हो जाता है ।
अर्जीदावा के बाद सम्मन जारी किए जाते हैं ।
वादी या आवेदक और बचाव पक्ष या प्रतिवादी लिखित बयान तथा मुद्दे दर्ज कराते हैं ।
पेश किए गये तथ्यों के आधार पर दोनों पक्ष की सुनवाई होती है , जिस पर अदालत फैसला सुनाती है ।
फैसला सुनाने के बाद अदालत अंत में आज्ञप्ति या डिक्री जारी करती है , जिसमें अदालत के आदेश तथा संबद्ध पक्षों की पूर्ति या रिलीफ का ब्यौरा होता है ।
अर्जीदावा या आवेदन में सभी दावे शामिल किए जाने चाहिए क्योंकि एक ही उद्देश्य से संबंधित ऐसे नए दावों की पूर्ति के लिए व्यक्ति दूसरी बार आवेदन नहीं कर सकता है । जिनके बारे में पहले आवेदन के समय दावा नहीं किया गया हो।
मामले से संबंधित पक्षों को सुनवाई के दौरान अदालत में उपस्थित रहना चाहिए । ऐसा नहीं होने पर अदालत मामले को रद्द कर सकती है या डिक्री भी दे सकती है । अगर अनुपस्थिति के वाजिब कारण होंगे तो दोबारा सुनवाई भी हो सकती है।
मामले से संबंधित पक्ष कोई समझौता कर सकते हैं और अदालत से इसके लिए डिक्री जारी करने का अनुरोध कर सकते हैं ।
निचली अदालत के फैसले के खिलाफ आप ऊंची अदालत में अपील कर सकते हैं । हालांकि अपीलीय अदालत में सुनवाई के दौरान आपस में समझौता भी कर सकते हैं ।
मामले में नुकसान उठाने वाले पक्ष की पुनर्विचार याचिका पर अदालत अपनी ही डिक्री या आदेश पर पुनर्विचार कर सकता है। औऱ डिक्री या आदेश को संशोधित कर सकता है ।
किसी मुकदमे के पूरी तरह खत्म हो जाने पर कोई पक्ष उन्हीं मुद्दों को लेकर दोबारा मुकदमा दायर नहीं कर सकता है ।
आपराधिक मामलों के विपरीत , सिविल मुकदमों में जीतने वाले पक्ष को आमतौर पर मुकदमें में हुए खर्च का मुआवजा दिया जाता है। इस खर्च में -सम्मन आदि के लिए अदालत को भुगतान , स्टाम्प की कीमत, आवेदन करने और मुकदमे के दौरन हुए खर्च शामिल होते हैं ।
अगर जीतने वाले पक्ष को डिक्री के मुताबिक लाभ नहीं मिलता है तो उसे इन लाभों के लिए फिर उसी अदालत में आवेदन करना होता है । यह डिक्री पास होने के बारह साल के अंदर दिया जाना चाहिए।

निर्णय के अनुपालन की समय-सीमा

अगर किसी को उसकी जमीन या अन्य अचल संपत्ति से गैर-कानूनी तरीके से वंचित कर दिया गया है तो वंचित किए जाने के 12 साल की अवधि में अपनी संपत्ति की वापसी का दावा दायर कर देना चाहिए । हालांकि सरकार तीस साल तक ऐसा दावा कर सकती है ।
किसी ऋण या चल संपत्ति की वापसी का मुकदमा भुगतान की तारीख या उसकी प्राप्ति स्वीकृति की तारीख के 3 साल के भीतर किया जाना चाहिए।
वस्तुओं के मूल्य के बारे में मुकदमा संबंधित सौदे के 3 साल के भीतर कर दिया जाना चाहिए।
किसी हमले से हुए नुकसान या मृत्यु के मुआवजे का दावा घटना के 1 साल के भीतर कर दिया जाना चाहिए।
किसी करार को किए जाने के 3 साल के भीतर उसको लागू कराने के लिए अदालत में जा सकते हैं । जबकि पंजीकृत करार के मामले में छह साल तक अदालत में जा सकते हैं ।
किसी न्यास (ट्रस्ट) की संपत्ति की वापसी के लिए किसी न्यासी के खिलाफ कभी भी मुकदमा दायर किया जा सकता है ।
केवल सजा के जुर्माने वाले आपराधिक मामलों में छह महीने के अंदर मुकदमा कर दिया जाना चाहिए।
एक साल तक के कारावास के मामले में एक साल तक अदालत में जा सकते हैं ।
जबकि ज्यादा गंभीर अपराध के मामले में तीन साल बाद तक अदालत जा सकते हैं ।

मुफ्त कानूनी सेवाएं

मुफ्त सहायता में अदालत की फीस, कागजात तैयार करने , गवाह बुलाने और अन्य ऐसे कार्यों के लिए खर्च की गयी राशि तथा वकील की फीस शामिल है ।

मुफ्त कानूनी सहायता मिलने या इसके बारे में जानकारी हासिल के लिए अपने मंडल/ तालुक, जिले या राज्य के विधिक सेवा प्राधिकरण से संपर्क करें । राज्य के उच्चन्यायालय के मुख्य न्यायाधीश , जिला न्यायाधीश या वरिष्ठ सिविल जज के कार्यालय से भी जानकारी मिल सकती है , क्योंकि ये अधिकारी विभिन्न स्तरों पर इन प्राधिकारणो के अध्यक्ष होते हैं ।

मुफ्त कानूनी सहायता पाने वाले लोग
अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग
महिलाएं, बच्चे औऱ विकलांग
बेगार और अनैतिक देहव्यापार के शिकार लोग
जन-असंतोष , जातीय हिंसा या जातीय अत्याचार और प्राकृतिक या औद्योगिक दुर्घटनाओं से पीड़ित लोग
किशोर गृह , मनोरोग अस्पताल या अन्य सरक्षण गृहों में रह रहे लोग
औद्योगिक कामगार औऱ गरीब लोग(राज्य सरकार की तय सीमारेखा के अंदर गरीब)

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